इतिहास के राजमार्ग पर चल कर
पूर्वजों का कीर्तिरथ आता है
आदर्शों के द्रुतगामी सैंधव बढ़ चले
आह! अनुसरण न कर पाए हम पगचारी ।
ओ मेरे चक्षुहीन धृतराष्ट्र!
तुम्हें दिग्भ्रम होता है,
चतुड्रिक अंधकार है राह नहीं मिलती।
में तुम्हारी वेदना की सहभागिनी बनूं
अभेदय आवरण से ढंक लूं अपने भी दृष्टिपथ को ?
द्रुतगामी सैंधव की टाप सुन पाएंगे हम,
मिल पाएगी राह दोनों को गिरते - पड़ते?
नहीं, चल न पाएंगे इस अनचीन्हे पथ पर हम
मैंने ज्योति पाई है
आओ,यह बांह गहो
संबलहीन चल पाया है,कौन यहां, कब कहो!
धन्यवाद
शेखर जोशी
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