24 सितंबर, 1932 भारतीय राजनीति का काला अध्याय)
गांधी और उनका अनशन
सांप्रदायिक मसला वह कठोर चट्टान थी, जिस से टकराकर भारतीय गोलमेज सम्मेलन का जहां चूर-चूर हो गया। सम्मेलन भंग हो गया, क्योंकि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक संप्रदायों के बीच कोई समझौता नहीं हो सका। भारत के अल्पसंख्यकों का आग्रह था कि स्वराज के अधीन उनकी स्थिति को सुरक्षा प्रदान की जाए अरुण ने विधान मंडलों में विशेष प्रतिनिधित्व दिया जाए। कांग्रेस के प्रतिनिधि के नाते मोहनदास करमचंद गांधी मुस्लिमों और सिखों के अलावा और किसी भी ऐसी मांग को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। मुसलमानों और सिखों के मामले में भी, ना तो सीटों की संख्या के बारे में और ना ही निर्वाचन क्षेत्रों के स्वरूप के बारे में कोई समझौता हो सका। पूर्ण गतिरोध हो गया। चूंकी समझौते की गुंजाइश नहीं थी, अत : आशा की किरण मध्यस्थता में दिखाई दी। मेरे सिवाय इसके लिए हर कोई तैयार था और मसले के निपटारे का भार प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड पर छोड़ दिया गया।
जब प्रथम गोलमेज सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि सांप्रदायिक मसले के किसी हल के बारे में सहमत नहीं हो सके, तो महात्मा गांधी के अनुयायियों ने कहा कि उन प्रतिनिधियों से इससे बेहतर कोई आशा नहीं की जा सकती। यह कहां गया कि प्रतिनिधि ना तो प्रतिनिधि थे और ना ही किसी के प्रति उत्तरदायी थे। वे जान-बूझकर फूट डाल रहे थे । वे तो अंग्रेजों के हाथों में खेल रहे थे। वे तो अंग्रेजों की कठपुतलियां थे और उन्हीं के मनोनीत व्यक्ति थे। दुनिया के सामने ढोल पीटा गया कि वह महात्मा गांधी के आगमन की प्रतीक्षा करें और वायदा किया गया कि अपनी राजनीतिक सूझबूझ के बल पर महात्मा गांधी इस विवाद का निपटारा कर सकेंगे। अतः महात्मा गांधी की मित्रों के लिए बड़े शर्म की बात थी कि महात्मा गांधी ने अपने दीवालीएपन को स्वीकार किया और प्रधानमंत्री से किए गए मध्यस्थता के अनुरोध में वह भी शामिल हो गए।
लेकिन यह सम्मेलन विफल हो गया तो उसका पूरा दोष महात्मा गांधी का है। सम्मेलन तो ऐसे संविधान की रूपरेखा प्रस्तुत करने के लिए बुलाया गया था, जो भारत के विभिन्न प्रकार के हितों में तालमेल स्थापित कर सके। ऐसे सम्मेलन के लिए महात्मा गांधी से अधिक अनुभवहीन और और अकुशल प्रतिनिधि नहीं भेजा जा सकता था। संवैधानिक विधि अथवा वित्त के बारे में महात्मा गांधी का ज्ञान सुनने के बराबर था। वह बौद्धिक योग्यता में विश्वास नहीं रखते। वस्तुत : उसके प्रति उसमें असीम घृणा है। अत : अनेक कठिनाइयों के समाधान के प्रति उनका योगदान सुनने के बराबर है। व्यवहार में कुशल नहीं थे। उन्होंने तो प्राय: सभी प्रतिनिधियों को नाराज कर दिया। उनसे वह बार-बार यही कहते रहे कि वे नग्णय व्यक्ति थे। प्रथम गोलमेज सम्मेलन में प्रतिनिधि सांप्रदायिक समस्या के किसी हल के बारे में सहमत नहीं हो सके थे । लेकिन यह भी उतना ही सच है कि वे सहमति के अति निकट पहुंच गए थे और जब भी अलग हुए तो उन्होंने सहमति की आशा नहीं छोड़ी थी। लेकिन दूसरे गोलमेज सम्मेलन के समापन पर महात्मा गांधी ने इतना मनमुटाव पैदा कर दिया था कि आपसी सुलह का कोई मौका ही नहीं रह गया था। तब मध्यस्थता के अलावा और कोई चारा ही नहीं रह गया था।
सांप्रदायिक मसले पर प्रधानमंत्री रैमज़े मकेडॉनाल्ड के निर्णय की घोषणा 17 अगस्त 1932 को की गई। जहां तक निर्णय की शर्तों का संबंध अस्पृश्यों से हैं, वे इस प्रकार है :
महामहिम की सरकार, 1932 द्वारा लिया गया सांप्रदायिक निर्णय
1. विगत 1 दिसंबर को गोलमेज सम्मेलन के दूसरे सत्र के समापन पर महामहिम की सरकार की ओर प्रधानमंत्री रैमज़े मेकडॉनाल्ड मैं एक भाषण दिया और उसके तुरंत पश्चात् संसद के दोनों सदनों ने उनका अनुमोदन किया। उसमें या स्पष्ट कर दिया गया कि जिन संप्रदायिक मसलों को हल करने में सम्मेलन विफल रहा, यदि उनके बारे में भारत के संप्रदाय सभी पक्षों को स्वीकार्य कोई समझौता न कर सके तो महामहिम की सरकार इस बारे में दृढ़ संकल्प है कि उसके कारण भारत की संवैधानिक प्रगति अवरुद्ध नहीं होनी चाहिए और स्वयं दिमाग लगाकर और जुगत भिड़ाकर एक अस्थाई योजना के द्वारा इस बाधा को दूर करेगी।
2. जब महामहिम की सरकार को यह सूचना मिली कि किसी समझौते पर पहुंचने में संप्रदाय लगातार विफल रहे है और उससे एक नए संविधान की संरचना संबंधित योजनाओं की प्रगति में बाधा पड़ रही है, तो उसने विगत 19 मार्च को कहां के उत्पन्न होने वाले कठिन विवादास्पद मसलों पर सावधानी से पुनर्विचार कर रही है। वह अब इस बारे में संतुष्ट हो गई है कि संविधान की संरचना में आगे प्रगति तभी हो सकती हैं जब मैं सविधान के अधीन अल्पसंख्कों की स्थिति से संबंद्ध समस्याओं के कम से कम कुछ पहलुओं के बारे में निर्णय हो जाए।
इसके आगे बहुत सी जानकारी है, जो मैं आपको अगले आर्टिकल में बताऊंगी।
तब तक के लिए आप हमारे साथ बने रहिये।
धन्यवाद
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