रचना की उम्र पांच साल थी। घर में पैसों की कोई कमी नहीं थी उसके पापा का बहुत बड़ा बिजनेस था।
रचना के पापा जगदीश जी उसे बहुत प्यार करते थे। वहीं उसकी मां गीता उस पर अपनी जान छिड़कती थीं। घर में कई नौकर थे, जो दिन रात घर की साफ सफाई, खाना बनाना और भी सारे काम करते थे।
एक दिन रचना अपने मम्मी पापा के साथ घूमने जा रही थी। कार की पिछली सीट पर बैठ कर रचना बाहर के नजारे देख रही थी। बाहर बारिश हो रही थी। रचना ने देखा एक छोटा सा लड़का सड़क किनारे अपनी बहन को गोदी में बिठा कर खुद को और बहन को एक तिरपाल से ढकने की कोशिश कर रहा था। लेकिन तेज हवा के कारण दोंनो ही भीग रहे थे।
रचना: मम्मी देखो वो दोंनो बेचारे कैसे भीग रहे हैं।
गीता जी: हां बेटा वे गरीब लोग हैं यही उनका ठिकाना है।
रचना: लेकिन मम्मी ऐसा क्यों? हमारे पास तो इतना बड़ा घर है कई कई कार हैं और इनके पास सर छिपाने के लिये कुछ भी नहीं।
गीता जी: बेटी ये सब इनकी किस्मत से मिला है और हमें जो भी मिला है हमारी किस्मत से मिला है।
रचना: मम्मी ये किस्मत क्या होती है और ये सब कुछ बांटने में कंजूसी क्यों करती है।
रचना की बात सुनकर गीता जी और जगदीश जी दोंनो हस पड़े।
गीता जी: नहीं बेटा ऐसा नहीं बोलते सब कुछ ईश्वर हमें देते हैं। किसी को कम किसी को ज्यादा।
कुछ ही देर में लाईट ग्रीन हो गई और कार अपनी स्पीड से आगे बढ़ने लगी। लेकिन रचना के मन में कई सवाल उठ रहे थे। जिनका जबाब न मिलने से वह परेशान हो रही थी।
रचना रास्ते भर बाहर के दृश्य देखती रही। उसने कई जगह इसी तरह के गरीब लोगों को देखा जो किसी तरह अपनी गुजर बसर कर रहे थे।
तीनों एक बड़े से होटल में खाना खाने के लिये रुके।
जगदीश जी: बोलो बेटी तुम्हें क्या खाना है। जो चाहो वो मंगा लो बाद में तुम्हारी पसंदीदा आईसक्रीम खायेंगे।
रचना: पापा मेरा कुछ खाने का मन नहीं है। आपने रास्ते में शायद देखा नहीं कितने लोग भूखे बैठे थे। वो भीग भी रहे थे और हम यहां बड़े से होटल में खाना खा रहे हैं।
गीता जी: बेटी तुझे क्या हो गया। वो लोग गरीब हैं तो हम क्या कर सकते हैं। अगर उनकी किस्मत में पैसा होगा तो वे भी अमीर हो जायेंगे और इससे भी अच्छे होटल में खाना खा पायेंगे। तुझे पता है पहले तेरे पापा के पास भी इतने पैसे नहीं थे। लेकिन फिर इन्होंने बहुत मेहनत की और किस्मत ने साथ दिया। तभी हम आज यहां तक पहुंच पाये हैं।
रचना: लेकिन मम्मी हम कुछ लोंगो की मदद तो कर सकते हैं जिससे वे दुःखी न रहें।
जगदीश जी: अच्छा ठीक है बेटा आप खाना खाओ मजे करो। जब हम यहां से जायेंगे तो कुछ खाना पैक करा लेंगे और तुम अपने हाथों से उन गरीबों में बांट देना।
यह सुनकर रचना बहुत खुश हुई। जगदीश जी ने जाते समय खाना पैक करवाया और उसी जगह पहुंच गये जहां रचना ने उन लोगों को देखा था। तब तक बारिश भी बंद हो चुकी थी। रचना ने अपने हाथ से सब को खाने के पैकेट दिये। वह कुछ आगे चली तो वही छोटा सा लड़का अपनी बहन के साथ बैठा था। रचना ने एक एक पैकट उन दोंनो को भी दे दिया।
वह छोटी सी बच्ची रचना की ओर हाथ बढ़ाने लगी। रचना उसकी ओर बड़ी तभी गीता जी ने उसे रोक दिया।
गीता जी: बेटी क्या कर रही हों? देखो वो कितने गंदे कपड़े पहने है वो भी गीले। तुम उसे गोद में लेने जा रही थीं। तुम्हारे कपड़े गंदे हो जाते। चलो यहां से।
गीता जी और जगदीश जी, रचना को लेकर कार की तरफ चल दिये।
रचना: मम्मी मुझे छोड़ दो मैं उन बच्चों के साथ खेलूंगी। वो मुझे अपनी छोटी बहन की तरह लग रही है।
जगदीश जी: रचना तुम बहुत जिद्दी हो गई हों। चलो चुपचाप।
पापा की डॉट सुनकर रचना सहम जाती है और चुपचाप गाड़ी में बैठ जाती है। कुछ ही देर में तीनों घर पहुंच जाते हैं। रास्तें में तीनों ने एक शब्द भी नहीं बोला।
घर आकर रचना चुपचाप अपने कमरे में चली गई।
रात को गीता जी, रचना के कमरे में गईं।
रचना: आप सब अमीर लोग बहुत खराब हो गरीबों से नफरत करते हों। आप लोगों सारे पैसे अपने पास रख लिये इसलिये वे लोग गरीब हैं।
गीता जी उसे बहुत समझाती हैं लेकिन रचना के मन में अपने माता पिता और सभी साथ वालों के लिये नफरत सी पैदा हो गई थी।
कुछ दिन बाद रचना का जन्मदिन आने वाला था। लेकिन रचना ने जन्मदिन मनाने से साफ मना कर दिया।
जगदीश जी: मेरी गुड़िया अब तक अपने पापा से नाराज है?
रचना: नहीं पापा लेकिन मैं जन्मदिन एक शर्त पर मनाउंगी। मेरे जन्मदिन में अपने अमीर मेहमानों को छोड़ कर उन गरीबों को बुलाना चाहती हूं। उनके साथ खेलना चाहती हूं।
जगदीश जी: बेटी ऐसा कैसे हो सकता है? हमारे में और उनमें बहुत अंतर है। हमें अपने बराबर वालों में उठना बैठना चाहिये।
रचना: मुझे पता था। इसीलिये तो मैं जन्मदिन नहीं मनाना चाहती। क्योंकि में इन सब लोंगो से नफरत करती हूं।
गीता जी: बेटा एक काम करते हैं हम जन्मदिन तो वैसे ही मनायेंगे जैसे मनाते हैं। लेकिन दिन में हम कुछ केक आर मिठाईयां लेकर वहीं चलेंगे और उनमें बांट आयेंगे।
रचना नहीं मानती। वह रोने लगती है। अपनी लाडली बेटी की आंखों में आंसू देख कर जगदीश जी का मन पिघल जाता है।
जगदीश जी: ठीक है बेटा हम वैसा ही करेंगे जैसा तुम चाहती हों।
जगदीश जी शहर के बाहर एक र्फाम हाउस बुक करते हैं। वहां खाने पीने का पूरा इंतजाम करवाते हैं। जन्म दिन वाले दिन वे सड़क किनारे बैठे सभी लोंगो को कई बसों में बिठा कर वहां ले जाते हैं।
उन्हें देख कर रचना बहुत खुश होती है। उसमें वो दोंनो भाई बहन भी थे। गीता जी उनके लिये नये कपड़े लाईं थी। रचना की नौकरानी उन्हें ले जाती है उन्हें नहला कर नये कपड़े पहना कर तैयार करती है। जब वे दोंनो बाहर आते हैं तो सभी उन्हें देख कर चौंक जाते हैं।
रचना जोर जोर से उछलने लगती है। वे दोंनो भाई बहन भी रचना के साथ खेलने लगते हैं। कुछ देर बाद रचना सबके साथ मिल कर केक काटती है। फिर सब खाना खाते हैं।
जाते समय जगदीश जी सभी को पैसे देते हैं। सभी लोग रचना को बहुत आशीर्वाद देकर अपनी अपनी बसों में बैठ कर वापस चले जाते हैं।
रचना की खुशी देख कर उसके माता पिता बहुत खुश होते हैं। तब से उनकी सोच बदल जाती है। वे अब गरीबों के लिये बहुत करने लगते हैं और अपना हर त्यौहार व हर खुशी का पल वे अब उन्हीं लोंगो के साथ मनाते थे।
एक छोटी सी बच्ची की जिद ने दोंनो के सोचने का तरीका बदल दिया था।
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