बिहार की राजनीति में हिंदुत्व अब एक नए मोड़ पर पहुंच चुका है। हाल के वर्षों में तीन प्रमुख नेताओं का उभरना इस बदलाव का संकेत देता है जिन्हें कई लोग हिंदुत्व की ‘त्रिमूर्ति’ कह रहे हैं। इन नेताओं की बढ़ती लोकप्रियता न केवल हिंदू समाज के भीतर धार्मिक भावनाओं को जागृत कर रही है बल्कि जातीय और धर्मनिरपेक्ष राजनीति के समीकरण को भी प्रभावित कर रही है। महागठबंधन जो जातीय गठजोड़ पर टिका हुआ है इस नए सियासी घटनाक्रम से असहज महसूस कर रहा है।
बिहार की राजनीति पर लंबे समय से जातिवाद का प्रभाव रहा है। सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता की राजनीति के सहारे महागठबंधन ने अपनी पकड़ बनाए रखी थी लेकिन हिंदुत्व की यह नई लहर उसकी रणनीति को कमजोर कर सकती है। बीजेपी हिंदुत्व को एक सशक्त चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की तैयारी कर रही है जबकि महागठबंधन इस चुनौती से निपटने के रास्ते तलाश रहा है। इस बदलाव से सबसे अधिक असर गैर-यादव ओबीसी और दलित समुदायों पर पड़ सकता है जो अब तक महागठबंधन के समर्थक माने जाते रहे हैं। अगर यह वर्ग हिंदुत्व की राजनीति से प्रभावित होता है, तो बिहार की सत्ता का समीकरण पूरी तरह बदल सकता है।
बीजेपी इस माहौल का पूरा फायदा उठाने की कोशिश कर रही है। धार्मिक आयोजनों, मंदिरों के जीर्णोद्धार और हिंदू आस्था से जुड़े मुद्दों को उभारकर उसने हिंदू मतदाताओं के बीच अपनी स्थिति मजबूत की है। इसके विपरीत, महागठबंधन धर्मनिरपेक्षता की अपनी पुरानी रणनीति को जारी रखे हुए है, लेकिन बदले हुए माहौल में यह कितनी कारगर होगी, यह कहना मुश्किल है।
आगामी चुनावों में इस हिंदुत्व लहर का कितना असर होगा, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन यह साफ है कि बिहार की राजनीति अब एक नए ध्रुवीकरण की ओर बढ़ रही है। महागठबंधन के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होगी कि वह अपने पारंपरिक वोट बैंक को किस तरह बचाए और हिंदुत्व की राजनीति का जवाब कैसे दे। बीजेपी पहले से ही इस मुद्दे पर आक्रामक दिख रही है और अगर यह ‘त्रिमूर्ति’ अपनी पकड़ मजबूत करती रही, तो राज्य की राजनीति में बड़ा बदलाव देखने को मिल सकता है।
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